Tuesday 22 May 2012

अभिप्राय


चलते चलते नंगे पाँव
जाने कितने ही मील चल दिए
चुभते कांटे वालों इन राहों में
जाने कितने ही फूल हमने छल दिए 

जेबों में पड़े सपने
कहीं रास्तों में गिर कर टूट गए
कभी तारों तले जिनके संग वो ख्वाब बुन थे
वो वहीं कहीं तारों में ही छूट गए 

ज़िन्दगी की राहों पर
जो मुरझा जाना कभी बेकाम सा लगता था
आज उसी राह का हर मोड़
जैसे आंसुओं का मुकाम सा लगता है 

एक एक कर
बारिश हर बूँद पिया करते थे
एक एक कर
हर पल में ज़िन्दगी एक और जिया करते थे 

नीले आसमान तले
जो सपने कभी सुहाने लगते थे
उसी काले आसमान के तले
आज हकीकत को भूल जाने के बहाने लगते हैं 

कभी उनकी एक एक मुस्कराहट को मुट्ठी में भरने को
तलवे छिल जाने तक हम दौड़े थे 
आज उन्ही के सूखे आंसू याद दिलाते हैं
की हमारे ये जज़्बात ही सभी भगोड़े थे

खैर, 
अब युँही चलते चलते नंगे पाँव
कुछ दूर और चले आयेंगे 
वहीं कहीं गज गहरा एक गड्ढा है
उसी में हर हसरत हर ख्वाब दबा 
आज फिर कहीं निकल जायेंगे... 



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