Thursday 31 July 2014

घर

एक घर की तलाश में,
कहीं दूर निकल जाता हूँ,
कभी पहाड़, कभी नदिया, तो कभी खुले मैदान में,
नीले आकाश तले खुद को पाता हूँ

चलता ही रहता हूँ,
क्यों न रुक पाता हूँ,
और जो कभी थक जाऊँ,
तो क्यों न झुक पाता हूँ,

यूँ तो,
इन रास्तों की,
खूब पहचान रखता हूँ,
फिर जाने क्यों,
खुदको इनसे अनजान रखता हूँ

चाहों में भी,
अनचाहा सा मैं,
राहों में भी,
बेराहा सा हूँ

सोचता हूँ की अपनी देह में,
एक इंसान रखता हूँ मैं,
आज अपनी अज्ञानता पर,
बड़ा अभिमान रखता हूँ मैं

जो टूट जाऊँ तो,
खुद में  समा जाता हूँ,
अपनी इस अनंत भूक में,
अपनों को ही खा जाता हूँ

और फिर चल पड़ता हूँ,
एक घर की तलाश में,
दो गज़ ज़मीन का शौक कहाँ मुझे,
एक आलिशान बंजर की आस में

पर क्यों न देख पाता हूँ,
एक घर, जो मुझमे बस्ता है,
एक दिल है सीने में,
जो कबसे धड़कने को तरसता है

क्यों आँसू पीना,
मैंने सीख लिया,
क्यों मुस्कराहट बिन जीना,
मैंने सीख लिया

क्यों एक आग सा भड़कने को,
मैं ललायित नहीं हूँ,
क्यों एक नए आज की खोज में,
मैं उत्साहित नहीं हूँ

सूरज की चमक से,
अब रात प्यारी लगती है,
क्यों अब सिर्फ,
इस अकेलेपन से यारी लगती है

पलटने से मुझे,
अब क्यों डर लगता है,
टिप टिप कर रिस्ता हुआ ये जीवन,
मुझे क्यों अमर लगता है

क्यों सपना देखना,
अब छोड़ देता हूँ,
क्यों हर ख्वाब को,
खुदसे निचोड़ देता हूँ

और फिर निकल पड़ता हूँ,
एक घर की तलाश में,
नदियों को लांघता हुआ,
दरिया की प्यास में

क्यों न समझता हूँ,
वह घर, मुझमे ही तो बस्ता है,
वह घर आज,
फिर धड़कने को तरसता है।