बड़ी मासूमियत से उसने पूछा था,
"आंटी आपका बच्चा मुझे देख कर क्यों रो रहा है?"
जब उसने पहली बार सुना था,
"बेटा आप काली हो न, इसलिए डर के मारे इसका हाल ऐसा हो रहा है"
और कुछ यूँ शुरू हुई थी उसकी ज़िन्दगी,
मुस्कराहट और मासूमियत के बीच,
एक कड़वे सच को दबोचे हुए,
अपने काले रंग पर रोते हुए
"बेटा तुम्हारा गोरा है, पर बेटी काली रह गयी"
रिश्तेदारों की बातों को चुप चुप के सुनती थी वोह,
आये दिन नए नए तरीको से गोरे होने के ख्वाब,
बुनती थी वोह
उसके आंसू पोंछ माँ उसे समझती थी,
पर दूसरों की बातें उससे बरबस रुलाती थी,
अध्यापिका जी हमेशा कहती की चेहरे का रंग,
से ज्यादा ज़रूरी है रूह का ढंग
फिर क्यों उसके ज्यादा दोस्त न थे?
सब उसे कल्लो कह कर बुलाते थे,
लड़के उसे हर वक़्त सताते थे,
उन्ही में फिर भी वोह कोई अपना ढूँढती थी,
जो कबका टूट चुका था वोह सपना ढूंढती थी
किसी के कहने पर वोह,
रोज़ नए नए लेप लगाती थी,
और लड़कियों की तरह गोरा बनना,
वोह भी चाहती थी
गोरा यानी सुन्दरता,
ये कहते हुए उसने किसी को सुना था,
जब उसे पसंद करने आये लड़को की संख्या
दस के भी पार हो गयी थी,
पर रंग देख कर उसे किसी ने न चुना था
"अब तोह दहेज़ के बिना कहीं बात न बनेगी,
क्या पता था ये कलमुही हमारे ही पल्ले पड़ेगी"
दादी की इस बात से न जाने उसके दिल में एक दर्द भर दिया था,
और बचपन से सुनती आई तानों की हद्द को पार कर दिया था
खैर,
ले दे कर थोड़े ज्यादा दहेज़ में,
उसका रिश्ता फिर तय हुआ था,
दूल्हा उसका कुछ कम पढ़ा लिखा हुआ था,
ये बात उसको रुलाती थी,
और वोह कालेपन को शाप मान
खुद को समझाती थी
ज़िन्दगी जैसे एक दंड बन कर रह गयी थी,
जब उसने अपने पति को किसी गोरी स्त्री की बाहों में देखा था,
उस दिन जब उसने खुद को बहती हुई एक नदी में फेंका था
काला रंग तोह उसका फिर भी न धुला,
काली ज़िन्दगी शायद धुल गयी थी.....