Monday, 21 May 2012

एक तारा टूटा था...

एक तारा टूटा था, 
कभी किसी ओर आसमान के, 
कहीं किसी ज़माने में, 

एक ख्वाब मेरे मन में फूटा था, 
कभी किसी बहाने में, 
पर थोड़ा डरा था मैं तुम्हे ये बात बताने में... 

हर जंगल, हर झरने में ढूँढा था, 
उस टूटे हुए तारे को, 
हर आंसू, हर मुस्कराहट में ढूँढा था, 
उस टूटे हुए तारे को...

हवा के हर झोंके में, 
मौसम के हर धोखे में, 
पत्तों की हर सरसराहट में, 
काले बादलों की हर गडगडाहट में, 
तलाशे थे निशाँ उस तारे के...

जो कहीं मिल भी जाता अगर, 
तो इस उलझन में घिरा रहता, 
की पहचान पाऊंगा उसे
जो कहीं पहचान भी जाता अगर 
तो इस ख्याल से सहमा रहता 
की अपना मान पाऊंगा उसे...

एक सपना जो हमेशा देखा करता था, 
एक तारा जो अपना देखा करता था...

जो टूट के न जाने कब बिछड़ गया था, 
जो रूठ के न जाने किसके जहाँ में गड़ गया था...

क्या वो जहाँ कभी  मेरा हो पायेगा? 
क्या उस तक अब मुझे कोई ले जायेगा?

उस तक, 
जिसे एक रोज़ देखा था मैंने,
पर कभी पूछ न पाया...

"क्या तुम्ही वो तारा थी?



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