कहते हैं, सपने देखने का हक कर किसी को है, पर सपने पूरे बस जांबाज़ दिल वाले ही कर पाते हैं। हम तो खैर किस्मत के मारे हैं, अपने मन को झूठे-मूटे सपनों से ही बहलाते रह जाते हैं।
"वाह साहब, खूब कही आपने," शर्मा जी गर्म चाय की चुस्की लेते हुए बोले।
"जी शुक्रिया, पर हकीकत है यही ज़िन्दगी की। मिलता है हर किसी को अपना नसीब बदलने का एक मौका, कोई झट से उससे लपक लेता है तो कोई बस हाथ मलता रह जाता है और फिर शुरू होता है, उस पल से अपने आखरी पल तक, एक लगातार मौत का सिलसिला।" पार्ले-जी का बिस्कुट अपनी काफी के प्याले में डुबोकर आनंद बाबु बोले।
"बड़े उम्दा ख्याल वाले लगते हैं आप, कौन शहर के निवासी हैं?" शर्मा जी ने पुछा था।
"पिछले कुछ वर्षों से लखनऊ में रह
रहा था, घर परिवार सब वहीँ सींचा था और उसे पहले काशीपुर नाम के एक शहर में बचपन
गुज़ारा था। बीवी को गुज़रे एक साल बीत गया था, और अकेलापन भी अब काटने को दौड़ता था। सोचा बाकी बचे कुछ साल बच्चों के संग गुज़ार लिए जाएँ
तो यहाँ दिल्ली चला आया।" आनंद बाबु के जवाब में काशीपुर का नाम सुन शर्मा जी थोड़े बेचैन हो उठे।
"आप कहाँ से हैं?" शर्मा जी कि विचारधारा को भंग करते हुए आनंद बाबु ने प्रश्न किया।
"मैं मुंबई से हूँ, बस किसी काम के सिलसिले में यहाँ आया हुआ था। अब यहाँ पर अपना सब, अपने एक पुराने रिश्तेदार के यहाँ छोड़ कर चला जाऊंगा विदेश," शर्मा जी बोले।
"समझा नहीं मैं।"
"३५ साल हो गए, घर से भाग बम्बई पहुंचा था। तबसे खून पसीना एक कर खूब काम किया, खूब दौलत कमाई।अब ऊब सा गया हूँ, मन करता है फिर भाग जाने का। सोच रहा हूँ विदेश घूम आऊं थोड़ा, फिर कभी मौका मिले न मिले।"
"और बीवी बच्चे?"
"कभी शादी करने का मौका ही कहाँ मिला, अब अकेलापन काटने को दौड़ा है।" मुरझाई सी आवाज़ में शर्मा जी ने बोला।
"किसके साथ जायेंगे फिर घूमने?"
"अकेला ही निकलूंगा, ज़िन्दगी की भागदौड़ में बस एक ही चीज़ छूट गयी। कभी कोई रिश्ता बनाने का समय ही न मिला। सोचता हूँ थोड़ा टहल आऊं, क्या पता इन्ही रास्तों में किसी अजनबी में ही कोई अपना सा लग जाए।" शर्मा जी कहते कहते हंस दिए।
"तोह भागने से पहले कहाँ रहते थे?"
शर्मा जी मुस्कुरा दिए, ३५ साल और उस कांटे कि चुभन आज भी दिल को लहूलुहान कर देती थी। वो एक सपना जो मिल कर देखा था, जो आज भी ज़िन्दगी को कुछ और अधुरा बनाने से नहीं चूकता।
शर्मा जी ने पास में पड़ा अख़बार उठा अपने माथे कि शिकन छुपाने कि कोशिश करी। इधर अपनी काफी के खाली कप को टेबल पर रख आनंद बाबु उठ खड़े हुए। शर्मा जी किसी तरह शहर वाले सवाल को टाल गए थे, और ये बात आनंद बाबु कि समझ में आ गयी थी।
"शायद कोई पुराना दर्द होगा ।
" के ख्याल के साथ १० रुपये का नोट दुकानदार को पकड़कर चले गए।
"साहब आपके चाय के रुपये आनंद बाबु ने दे दिए थे," दुकानदार पांच रुपये के सिक्के को वापस शर्मा जी कि तरफ ढकेलते हुए बोला।
"आनंद बाबु?"
"हाँ वही, जो आपके संग बैठ कर काफी पी रहे थे।"
शर्मा जी कुछ नहीं बोले, उस पांच रुपये के सिक्के को अपनी शर्ट की जेब में रखते हुए घर की ओर चल पढ़े।
इसी तरह उसी छोटे से होटल में हर रोज़ सुबह की सैर के बाद बातों का सिलसिला चलता था। चाय के बहाने आनंद बाबु ने काफी सारे दोस्त बनाये थे, पर शर्मा जी में उनको न जाने एक अकेलापन नज़र आता था। इसी के चलते शर्मा जी जब भी दिखते, आनंद बाबु उन्ही के संग अपनी
काफी की चुस्कियां लिया करते थे। एक बार बातों-बातों में नाम पुछा, तो बोले थे की शर्मा कह कर ही बुला लिया करो क्योंकि रिश्ते नामों से नहीं दिल से बनते हैं।
"अरे छोटू, शर्मा जी आये थे क्या आज?" आनंद बाबु ने चिल्ला कर, काउंटर पर बैठे सिक्को संग खेलते हुए छोटू से पुछा।
"हाँ आये तोह थे, और अपनी एक डाएरी भी छोड़ गए।"
"अच्छा दिखाओ तो ज़रा उनकी डाएरी।" आनंद बाबु ने कहा और छोटू झट से डाएरी ले उनके पास आ गया।
आनंद बाबु ने कुछ पन्ने पलट कर देखा, डाएरी में बस कुछ कविता और नाम-पते ही थे। बंद करते वक़्त अचानक ही उनका ध्यान एक पन्ने पर गया, शायद कोई पुराना किस्सा था। पिछले दिन छब्बीस जनवरी होने के कारण अख़बार नहीं छपे थे।
"चलो आज इस अजनबी की कहानी संग ही अपनी सुबह मनोरंजक बनायीं जाए।" आनंद बाबु मन ही मन बोले।
*******
सन १९७६:
"पप्पू कौशिक स्पीकिंग!!" फ़ोन के उस तरफ से आवाज़ आई।
"अरे घोंचू, राजू बोल रहा हूँ।"
"राजू, कहाँ पर है तू?" पप्पू ने पिताजी के डर से फुसफुसा कर कहा।
पप्पू के पिताजी पास ही के स्कूल में मास्टरजी थे, और हर रोज़ उनके साथ साथ स्कूल वाली छड़ी भी घर आती थी। उनका बस एक उसूल था, अगर लड़का एक बार में न माने तो छड़ी संग उसकी मुलाकात करा दी जाए। पप्पू को अपने पिताजी से ज्यादा उस छड़ी से डर लगता था।
"पप्पू, हमारा प्लान पूरा करने का समय आ गया है, मैं चौराहे के पास वाले बूथ पर हूँ।" राजू बोला।
राजू के पिताजी उस क्षेत्र के सबसे बड़े गेंहू व्यापारी थे। सालों से चले आ रहे अपने धंधे का अगला वारिस वोह राजू को ही बनाना चाहते थे, पर राजू का ध्यान तो कहीं और था। उसे मुंबई जाना था, अपने पैरों पर खड़ा होना था और अपनी दुनिया अपने ढंग से बनानी थी।
उसके इसी प्लान में उसका साथ उसके बचपन के दोस्त पप्पू ने देना था। पिछले दो
महीनों से, दिन रात बैठ उन्होंने पैसों के इंतज़ाम संग, टिकेट और
बम्बई में रुकने का प्रभंद भी कर लिया था।
"पर गाड़ी निकलने में तोह अभी कुछ समय बाकी है।" पप्पू ने घड़ी को देखते हुए कहा, घड़ी के कांटे सात बज कर पैंतीस दिखा रहे थे।
"बस दो घंटे और, मैं स्टेशन पर तेरा इंतज़ार करूँगा। तेरा टिकेट मेरी जेब में है।"
"मैं बस एक गठरी में अपने कपडे बाँध ठीक सवा नौ बजे तुझे स्टेशन के बाहर मिलूँगा।"
पप्पू ने कहा।
"मैं इंतज़ार करूँगा तेरा।"
"राजू, सब ठीक होगा न? माँ का दिल इस तरह दुखा नहीं पाऊंगा।"
"अरे पगले, इतनी चिंता क्यों करता है। बस ३ दिन और हम बम्बई में होंगे, फिर अपने अपने घर फ़ोन करेंगे। सब ठीक होगा, एक बार हमारे हाथ में कुछ पैसे आ जाएँ फिर तो तू अपने माँ बाबु जी को भी वहीँ बुला लेना," राजू ने समझाया।
"और तेरे बाबू जी, उनका क्या?"
"वही जिसने मेरी माँ को तडपा-तडपा कर मारा था। उनसे तो जितना दूर जा पाऊं उतना अच्छा।"
फ़ोन रख राजू अपने घर की ओर रवाना हुआ। कुल मिला कर ५०० रुपियों का इंतज़ाम हुआ था, राजू को बम्बई में एक अखबार की तरफ से लिखने का प्रस्ताव आया था। पप्पू, भी बारहवी पास था। जहाँ राजू अपना पिछले ही हफ्ते अपना बीसवाँ जन्म दिन
मना कर हटा था, पप्पू अगले ही महीन उन्नीस साल पूरे करने वाला था।
रात ८:३० बजे, साजो-सामान संग राजू स्टेशन को निकल गया। दोस्त के घर जाने का बहाना कर, राजू स्टेशन जा पहुंचा था। ट्रेन आने में पैंतालीस मिनट थे जब राजू स्टेशन पहुंचा। प्लेटफार्म पर इक्का-दुक्का लोग ही मौजूद थे, तो
वह पास के ही स्टाल से दो समोसे और एक कप चाय खरीद वहीँ एक बेंच पर पसर गया।
स्टेशन पर मौजूद एक रेल का इंजन को देखते हुए वोह चाय की चुस्की लेने लगा, बचपन से ही उसे रेल का बड़ा शौक था। जब भी रेलगाड़ी को गुज़रते हुए देखता था, तो सब कुछ भूल जाता था। पटरियों पर चलना तोह उसका प्रिये खेल था, अक्सर शाम बिताने वहीँ स्टेशन के करीब पटरियों पर बैठ जाता था और दूर शितिज की ओर देखता रहता। न जाने कितनी ही रेलगाड़ियाँ उसके सामने से गुजरी थी, न जाने कितनी बार उसने खुद को उन रेलगाड़ियों पर चढ़ने से रोका था।
"अभी सही वक़्त नहीं आया।"
यही सोच कर अपने आप को रोका लेता था राजू। पर जिस दिन ही उसने अपनी पढाई पूरी करी थी, उसने सोच लिया था की सही समय आने पर उन्ही में से एक ट्रेन को पकड़ वोह दिल्ली चला जायेगा और फिर दिल्ली से मुंबई। सब कहते थे मुंबई में हर किसी के सपने पूरे होते हैं, शायद उसका भी होना था। और बचपन से ही सबको ही उसकी कवितायेँ और कहानियां खूब भाती थीं। कितनी ही बार अखबारों में उसके लेख छप चुके थे। उन्ही दिनों उसकी मुलाक़ात बम्बई से आये एक संपादक से हुई थी। उन्होंने उसे बम्बई आने का न्योता दिया, बस फिर क्या था, पप्पू संग मिल कर उसने घर से भागने की पूरी योजना बना ली थी।
राजू के बाप को उसका लेखन बिलकुल न सुहाता था, पर राजू ने तो तय कर लिया था। इधर पप्पू का बचपन से ही फिल्मों में जाने का मन था, रामलीला और स्कूल के नाटकों में तो उसने खूब वाह वाही बटोरी थी। पर साथ ही साथ अपने पिताजी से कितनी ही बार डांट भी खायी थी। उसके पिताजी का सपना था की वोह उन्ही
की तरह एक अध्यापक बने पर उसे तो फिल्मस्टार बनना था।
"पुरानी दिल्ली जाने वाली गाड़ी अपने निर्धारित समय पर प्लेटफार्म नंबर १ पर आएगी।" इस घोषणा के संग ही उसका ध्यान भंग हुआ। उसने स्टेशन पर ही टंगी घड़ी की ओर नज़र डाली, तोह वह नौ बज कर दस मिनट दिखा रही थी।
"अब तक तोह पप्पू को आ जाना चाहिए था।"
माथे पर उभर आयीं पसीने की कुछ बूंदों को पोंछते हुए उसने सोचा।
पप्पू का कुछ अता पता नहीं था और इधर सिग्नल हरा हो चुका था। दूर से रेलगाड़ी की रौशनी दिखाई दे रही थी, जो धीरे धीरे और तेज़ होती जा रही थी।
मुसाफिरों का जमावड़ा स्टेशन को मनो जीवित कर चुका था, हर तरफ अफरा तफरी मची थी। बच्चों को लादे माँए, अटेची-बैग लिए भागते पुरुष, कहीं किसी कुली के चिल्लाने की आवाज़, कहीं सफ़र की उत्तेजना में चिल्ल-पौं मचाते बच्चे। मानो जैसे वर्षों बाद किसी बंज़र ज़मीन पर बारिश हुई और सबकी जान में जान आ गयी, पर दूसरी तरफ राजू का खून जैसे सूखने लगा था।
पहले दिन से राजू को डर था की उसका प्लान चौपट न हो जाए। रेलगाड़ी को आये हुए ५ मिनट हो चुके थे, पर अभी भी पप्पू कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। बेमन राजू एक बार फिर स्टेशन के मुख्यद्वार की ओर बढ़ा।
"राजू...." राजू ने मुड़के देखा तोह पप्पू भागा-भागा उसकी तरफ आ रहा था। राजू भी भीड़ को चीरते हुए उसकी तरफ बढ़ा।
"पप्पू तेरा सामान कहाँ है?"
"राजू, मेरी बात सुन।"
"खैर छोड़, रेलगाड़ी को छूटने में बस कुछ ही मिनट बाकी हैं। चल जल्दी चल।" राजू की जान में जैसे जान आई और चेहरे पर एक मुस्कराहट की रेखा।
"राजू मैं नहीं जा सकता।" पप्पू ने अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा।
भौचक्का सा हो राजू एक-टक उसकी तरफ देखता रह गया। पप्पू की आँखों से हलकी सी एक बूँद टपकी और वोह बोला,
"राजू हमारे माँ-बाप को हमारी ज़रुरत है, क्या हमारे सपने उनसे भी ज्यादा ज़रूरी हैं?"
राजू को एक बार के लिए विश्वास न हुआ की ये वही पप्पू है जो कभी उसको सपने देखना सिखा गया था। राजू जैसे एक बुत बनकर उसकी तरफ देखता रहा।
"राजू चल वापस, बड़ी मुश्किल से आया हूँ। मैं और देर नहीं रुक पाऊंगा, हम तेरे भी पिताजी से बात करेंगे और वोह सब समझ जायेंगे। अभी घर वापस चल राजू।" पप्पू ने राजू का हाथ पकड़ा और उससे अपने साथ साथ निकास की ओर ले जाने लगा।
राजू जैसे बिखर सा गया था और बिना कुछ बोले पप्पू के साथ चलने लगा। एक पल में उसका हर एक सपना चूर हो गया था, जिसे वोह अपनी सबसे बड़ी ताकत समझता था वही दोस्त आज उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन उसके सामने खड़ा था।
तभी अचानक रेलगाड़ी के इंजन की सीटी ने उसके हर ख्याल पर परदा किया, और उसने एकदम पीछे मुड़के देखा तो गार्ड हरी झंडी दिखा रहा, सिग्नल भी हरा हो चुका था।
"पप्पू, मुझे जाने दे और तू भी साथ चल।" राजू अपनी हथेली छुड़ाते हुए बोला।
"राजू नहीं, घर चल वापस.."
"घर? जहाँ तू एक अध्यापक और मैं एक गेंहू व्यापारी बनूँ, बिलकुल नहीं। जहाँ तेरे और मेरे सपनो का क़त्ल हो, बिलकुल नहीं। जहां तुझे हर पल अपने पिताजी की मार के डर से बिताना पड़े और मुझे हर एक पल का हिसाब अपने पिताजी को देना पड़े, हरगिज़ नहीं। पप्पू ये हमारी आखरी उम्मीद है, सामने ट्रेन खड़ी है और हर चीज़ का इंतज़ाम किया हुआ है। पप्पू चल पड़।" रुआंसा सा हो राजू बोला।
पप्पू ने न में सर हिलाया और उसकी हथेली फिर थामने के लिए हाथ बढ़ाया। पर वोह हाथ जा चुका था, पप्पू ने पीछे मुड़के देखा तोह राजू बेहताशा सा रेलगाड़ी की ओर दौड़ा जा रहा था।
"राजू..." पप्पू चिल्लाया पर राजू तोह उसे कबका अनसुना कर चुका था।
इससे पहले रेलगाड़ी प्लेटफार्म छोड़ती, राजू उसमे चढ़ चुका था। राजू ने
अपनी आँखों से टपकती बूंदों को पोंछ पलट कर पप्पू की ओर देखा, वोह प्लेटफार्म पर
खड़ा हाथ हिला रहा था। कहाँ जानते थे वोह दोनों, की उनका आखिरी अलविदा इस तरह
होगा।
इस दुनिया में एक पप्पू ही तोह था जिसके
लिए राजू अपनी जान तक दे सकता था, उस दिन उसी को छोड़ वोह हमेशा के लिए चला गया
था। फिर बम्बई की भाग दौड़ और अपने सपने को साकार करने के चक्कर में राजू की आधी
ज़िन्दगी कब बीत गयी उससे पता ही न चला। आज भी दिल में वही टीस लिए घूमता है राजू,
की काश पप्पू ने उसका साथ दिया होता। पप्पू से मिलने वापस गया था, पर पता चला
मास्टरजी का तबादला हो चुका था।
खैर ज़िन्दगी है, कुछ पाने के लिए कुछ
खोना भी पड़ता है।
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आनंद बाबु ने डाएरी में लिखी कहानी
को पड़ने के पश्चात, डाएरी के मुख्य प्रष्ठ की ओर गए।
"राजेंद्र शर्मा"
शर्मा जी के नाम संग उनका फ़ोन नंबर और पता भी वहां मौजूद था।
"छोटू, फ़ोन चालू है?" आनंद
बाबु ने चिल्ला कर पुछा।
"जी"
आनंद बाबु ने तुरंत वहां पर अंकित नंबर
मिलाया।
"जी हलो" दूसरी तरफ से आवाज़
आई।
"जी क्या मैं राजेंद्र शर्मा जी से
बात कर सकता हूँ?" आनंद बाबु ने पुछा।
"हेलो मैं राजेद्र शर्मा, आप
कौन?" उधर से शर्मा जी की आवाज़ आई।
"सुना है आप विदेश की सौर पे निकल
रहे हैं, और वो भी अकेले-अकेले," आनंद बाबु बोले।
"हाँ पर आपको कैसे पता, कौन बोल रहे
हैं?"
"पहचानिए, आजकल मेरी आपके साथ रोज़
सुबह मुलाकात होती है," आनंद बाबु ने मजाकिया अंदाज़ में कहा।
"मुझे नहीं पता, मैं आजकल बहुत
लोगों से मिलता हूँ। कौन हो तुम? ये बताओ वर्ना मैं फ़ोन रख रहा हूँ," शर्मा
जी की आवाज़ में झल्लाहट साफ़ झलक रही थी।
आनंद बाबु मुस्कुराये, और बोले
"पप्पू कौशिक स्पीकिंग"